अश्वत्थामा: महाभारत का शापित योद्धा - किताब अंश

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'मैं चिरंजीवी हूं, अमर हूं किंतु मैं शापित हूं, कलंकित हूं और पृथ्वी पर कोई ऐसा नहीं जो मेरे दुख को कम कर सके'

द्रोणाचार्य रात्रि में सोने से पहले कभी-कभी मुझसे बात किया करते थे।

”पुत्र अश्वत्थ, मैं चाहता हूँ कि तुम शीघ्र ही अपनी शिक्षा पूर्ण कर लो।“

”जी, पिताजी! मैं प्रयास कर रहा हूँ कि आपके दिए ज्ञान को शीघ्रातिशीघ्र आत्मसात कर लूँ। क्या आप किसी विशेष बात से चिंतित हैं?“
मैंने पूछा।

”नहीं... नहीं... ऐसा कुछ नहीं है, पुत्र। अच्छा एक बात बताओ।“

”पूछिए पिताजी!“

”यदि कोई मित्र या निकट संबंधी तुम्हारा अपमान कर दे तो तुम क्या करोगे? उससे बदला लोगे या फिर उसे क्षमा कर दोगे... क्या करोगे?“ द्रोण ने मुझसे पूछा।

”पिताजी, आपने मुझे अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा इसलिए दी है कि मैं आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग कर सकूँ। क्षत्रिय धर्म में अपमान का प्रतिशोध अपमान से लिया जाना ही श्रेयस्कर माना गया है, किंतु मानव-धर्म अपमान के घाव को क्षमा के मरहम से भरना बेहतर मानता है। मैं युद्ध-कौशल में निपुण अवश्य हूँ किंतु मेरा मन मुझे मानव-धर्म निभाने को कहता है। इसलिए, मुझे दूसरा विकल्प ही अधिक उपयुक्त जान पड़ता है क्योंकि क्षमादान से न केवल प्रतिशोध का भाव सदा के लिए शांत हो जाता है, अपितु यह आत्मोत्थान का भी श्रेष्ठ मार्ग है।“

”उत्तम!“ द्रोण ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ”मुझे तुम्हारा उत्तर पसंद आया। अच्छा पुत्र, अब सो जाओ!“

मैं उस समय समझ नहीं सका कि मेरे पिता के मन में क्या चल रहा था।

दो दिन बाद, द्रोणाचार्य ने सब शिष्यों को अपने पास बुलाया।

”तुम लोगों की शिक्षा अब पूर्ण हो चुकी है। मेरे पास जो भी ज्ञान था, मैंने वह सब तुम्हें दे दिया है। अब तुम लोग राजमहल लौटने की तैयारी कर लो।“

”गुरुदेव!“ द्रोण के प्रिय शिष्य अर्जुन ने कहा, ”आपको गुरु दक्षिणा दिए बिना हम कैसे जा सकते हैं? कृपया आज्ञा करें।“

द्रोण ने अर्जुन की बात सुनी तो अपनी प्रसन्नता को हृदय में रोक न सके। उनका चेहरा ऐसे खिल उठा मानो उन्हें इस क्षण की वर्षों से प्रतीक्षा थी।

”प्रिय अर्जुन, मुझे तुमसे यही अपेक्षा थी,“ द्रोण ने दूर क्षितिज की ओर देखते हुए कहा। ”तुमने पंचाल नरेश द्रुपद का नाम तो सुना ही होगा। मैं चाहता हूँ कि तुम पंचाल राज्य पर आक्रमण करो और द्रुपद को बंदी बनाकर मेरे पास ले आओ!“

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पुस्तक समीक्षा : महाभारत के शापित योद्धा के अनछुए पहलुओं की कथा

गुरु द्वारा माँगी गई दक्षिणा सुनकर सब राजकुमार स्तब्ध रह गए। द्रुपद ने अपने दरबार जिस समय मेरे पिता का अपमान किया था, मैं उस समय बालक था और मुझे भी उस घटना के विषय में नहीं पता था। इतने वर्षों में किसी ने द्रोण के मुख से द्रुपद का नाम नहीं सुना था, फिर सहसा गुरुदेव के मन में द्रुपद को बंदी बनाने का विचार क्यों आया? द्रोण का द्रुपद से क्या संबंध था? सबके मन में कौतूहल जाग गया परंतु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों को गुरु के आदेश का औचित्य पूछना नहीं सिखाया था। अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करने के अतिरिक्त शिष्यों के पास कोई विकल्प नहीं था। द्रुपद वाली घटना से अंजान होने के बावजूद, मैं देख रहा था कि मेरे पिता द्रोण द्वारा कुटिल एवं भीषण गुरु-दक्षिणा माँगने का नृशंस खेल अभी समाप्त नहीं हुआ था।

पंचाल नरेश द्रुपद के दरबार में हुए अपमान के दंश का घाव पक चुका था। द्रोणाचार्य ने इतने वर्षों तक मन में जल रही प्रतिशोध की आग को बुझने नहीं दिया। वर्षों पहले कुएँ में से कुरु राजकुमारों की गेंद निकालकर जो बिसात द्रोण ने बिछाई थी, आज उस पर उन्होंने अपने मोहरे आगे बढ़ा दिए थे। दुर्याेधन और अर्जुन के नेतृत्व में पांडवों व कौरवों ने मिलकर द्रुपद पर आक्रमण कर दिया और देखते-देखते द्रुपद की सेना में हाहाकार मच गया। बहुत ही कम समय में, अर्जुन ने द्रुपद के धनुष बाण काट डाले और उसे पकड़कर बंदी बना लिया।

”तुम कौन हो? इस तरह अचानक मुझ पर आक्रमण करने और मुझे बंदी बनाने का क्या प्रयोजन है?“ बेड़ियों में जकड़े द्रुपद ने अर्जुन से पूछा।


”मैं पांडव राजकुमार अर्जुन हूँ। मेरी आपसे कोई शत्रुता नहीं है। मैं केवल अपने गुरु की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ। उन्होंने मुझे आपको बंदी बनाकर लाने का आदेश दिया है।“

”कौन हैं तुम्हारे गुरु और वह मुझे बंदी क्यों बनाना चाहते हैं?“ द्रुपद ने प्रश्न किया।

”मेरे गुरु का नाम द्रोण है।“ अर्जुन ने गर्व से कहा, ”उनकी आपके साथ क्या शत्रुता है, मुझे न तो इसकी जानकारी है और न ही यह जानने में मेरी कोई रुचि है। उनका शिष्य होने के नाते मुझे केवल उनकी आज्ञा का पालन करना है। मेरी आपसे विनती है कि आप कृपया बिना विरोध किए मेरे साथ चलिए।“

द्रोण का नाम सुनते ही द्रुपद के पैरों के नीचे से धरती सरक गई। अनेक वर्ष पूर्व, अपने दरबार में द्रोण के साथ किया दुर्व्यवहार उसे स्मरण हो आया। काल ने अपना चक्र पूरा कर लिया था और अब बाज़ी द्रोण के हाथ में थी। द्रुपद को विश्वास था कि द्रोण उसे केवल अपमानित करना चाहता था क्योंकि यदि द्रुपद की हत्या करनी होती तो अर्जुन ने यह कार्य बहुत पहले कर दिया होता।

द्रुपद कुछ पल अर्जुन को देखता रहा। वह अर्जुन के साहस एवं युद्ध-कौशल से अत्यधिक प्रभावित था। ”काश, अर्जुन के समान, मेरा भी एक पुत्र होता!“ द्रुपद के मन में विचार उठा।

कुछ ही देर में, द्रोण के आज्ञाकारी शिष्यों ने द्रुपद को बंदी बनाकर द्रोण के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।

दृश्य बदल चुका था। अब द्रोण सिर उठाकर खड़े थे और द्रुपद की पलकें लज्जा से इतनी भारी हो गईं थीं कि वह दृष्टि उठाकर द्रोण को देखने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।

”याद है द्रुपद, कुछ वर्ष पूर्व तुमने मुझे भिक्षु कहकर संबोधित किया था? अब बताओ, भिक्षु कौन है?“ द्रोण ने कटाक्ष किया।

द्रुपद का सिर अब भी झुका हुआ था और उसकी दृष्टि द्रोण के पैरों पर टिकी हुई थी। वह सोच रहा था कि शायद जल्द ही उसे उन पैरों पर गिरकर द्रोण से क्षमा की भीख माँगनी पड़ेगी।

”युद्ध में मेरी विजय हुई है,“ द्रोण ने बोलना जारी रखा, ”तुम्हारा राज्य, तुम्हारी संपत्ति, तुम्हारा वैभव और यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन भी अब मेरे अधीन है। मैं चाहूँ तो शेष जीवन तुम्हें अपना दास बनाकर अपमानित कर सकता हूँ, किंतु मैं तुम्हारी तरह अहं के वश होकर, अपने ब्राह्मणत्व को कलंकित नहीं करना चाहता। मुझे पता है कि अपमान द्वारा अपमान का प्रतिकार बहुत सरल है, किंतु मनुष्य का धर्म यह है कि अपमान के घाव को क्षमा के मरहम से भरने का प्रयत्न करे क्योंकि क्षमा से न केवल प्रतिशोध की अग्नि शांत हो जाती है, अपितु यही आत्मोत्थान का एकमात्र और श्रेष्ठ मार्ग है।“

अपने पिता का उत्तर सुनकर मैं ठिठक गया। दो दिन पूर्व हमारे बीच जो वार्तालाप हुआ था, उसकी जड़ें मुझे अब दिखाई पड़ रही थीं। मेरे पिता मुझे देखकर मुस्करा रहे थे।

”तुम्हें याद होगा द्रुपद,“ द्रोण की बात अभी समाप्त नहीं हुई थी, ”तुमने स्वयं कहा था कि मित्रता बराबर वालों में होती है। आज तुम्हारे पास कुछ नहीं है क्योंकि तुम्हारा राज्य अब मेरा है। परंतु मैं तुमसे वर्षों पुरानी मित्रता तोड़ना नहीं चाहता। इसलिए मैं न केवल तुम्हें क्षमा कर रहा हूँ, अपितु तुम्हारी ही बात को महत्त्व देते हुए पंचाल राज्य का, जो अब पूरी तरह मेरे अधीन है, आधा भाग तुम्हें लौटाता हूँ! आज से तुम गंगा के दक्षिणी भाग में राज्य करोगे और गंगा के उत्तरी भाग पर मेरे आधिपत्य होगा। इस बराबरी के चलते अब हम फिर से मित्र हो गए हैं।“

यह सुनते ही अर्जुन ने आगे बढ़कर द्रुपद की बेड़ियाँ खोल दीं और द्रोण ने द्रुपद को गले लगा लिया।

अपने पिता के स्वभाव में इतनी विषमताएँ देखकर मैं दंग था। कोई व्यक्ति क्रोध, क्षमा और छल में एक साथ इतना पारंगत कैसे हो सकता है?

इस घटना से द्रोण के अपमान का घाव तो भर गया लेकिन द्रोण के हाथों हुई पराजय ने राजा द्रुपद के मन में अमर्ष का नया बीज बो दिया था।

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‘अश्वत्थामा
लेखक : आशुतोष गर्ग
प्रकाशक: मंजुल प्रकाशन
पृष्ठ: 198
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