‘जीवन संध्या में एकाकी क्यों?’ : बुजुर्गों की बात करने वाली किताब

पुस्तक युवा पीढ़ी को जागरुक करती है. जीवन के अनगिनत सबक यह किताब सिखाती है.

अन्नपूर्णा बाजपेयी की पुस्तक ‘जीवन संध्या में एकाकी क्यों?’ में बुजुर्गों के जीवन के कई पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। पुस्तक के शीर्षक में ही बुढ़ापे का सार छिपा है। जीवन के आखिरी वक्त में उम्रदराज अकेले हैं। उनकी उपेक्षा की जा रही है और उनकी भावनाओं की कद्र नहीं की जा रही।

लेख, कविताओं आदि के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी है कि बुढ़ापा होता क्या है और वह वर्तमान में किस हाल में है। युवा पीढ़ी से उम्रदराजों की क्या अपेक्षायें हैं और वे अपनों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं। साथ ही बूढ़ों से संबंधित कई मुद्दों पर चर्चा की गयी है।

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पुस्तक में वर्तमान समय में उपेक्षित बुजुर्गों की मनोदशा का चित्रण किया गया है। अन्नपूर्णा की यह पुस्तक तारीफ के काबिल है क्योंकि आज के समय में बुजुर्गों की बातें करने वाले बहुत हैं, मगर कम ही लोग गौर करने के पश्चात उनकी दशा को सामने रख पाते हैं। कहने का मतलब यह है कि इस किताब में प्रकाशित सामग्री द्वारा उम्रदराजों की वास्तविकता को बताया गया है।

यह कहना सही होगा कि पुस्तक पढ़ने के बाद बुजुर्गों के प्रति सेवाभाव और अधिक सम्मान जाग्रत होगा। यह किताब हमें प्रेरणा देती है कि हम अपनों की कद्र करें, उनके डगमगाते कदमों को सहारा दें और उनके आखिरी दिनों में उनके साथ वक्त बितायें।

अन्नपूर्णा कहती हैं कि ऐसा नहीं कि बुजुर्गों की दशा के लिए हर बार दूसरे जिम्मेदार हैं, वे भी कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेदार हैं। उनके अनुसार: ‘कुछ बुजुर्ग अपने को उपेक्षित मानते हैं जबकि असलियत में वे होते नहीं। वे दूसरों को देखकर स्वयं को भी उसी श्रेणी में मान लेते हैं और अपने जीवन में खुद ही जहर घोलने का काम करते हैं।’

उम्रदराजों की दयनीय स्थिति के लिए लेखिका ने कई कारण गिनाये हैं। संस्कार विहीन शिक्षा का जिक्र करते हुए वे कहती हैं कि आधुनिकता और प्रतियोगिता के दौर में हमारे संस्कार कहीं खो गये हैं। इस वजह से पीढि़यों के बीच दरारें उत्पन्न हो रही हैं। अन्नपूर्णा बाजपेयी ने पुस्तक में आर्थिक कारण, टूटते संयुक्त परिवार, पूर्वाग्रह, संवाद की कमी, संवेदनहीन पीढ़ी आदि के विषय पर चर्चा कर बुजुर्गों की समस्याओं को समझाने की कोशिश की है।

यह पुस्तक एक पवित्र प्रयास है। इसमें अन्य रचनाकारों ने भी अपना सहयोग दिया है जिस कारण यह पुस्तक विचारों का उन्नत संग्रह बन गयी है।

किताब यह कहती है कि बच्चों की खुशी के लिए माता-पिता दिन-रात मेहनत करते हैं। उनकी हर जिद पूरी करते हैं लेकिन यही बच्चे जब भविष्य में अपने बड़ों का तिरस्कार करते हैं तो सोच में पड़ना वाजिब है। शायद बच्चों की परवरिश करते-करते हम उन्हें संस्कार देना भूल गये।

पुस्तक युवा पीढ़ी को जागरुक करती है। जीवन के अनगिनत सबक यह किताब सिखाती है।

कुछ लोग बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। कई लोग उनके बीमार होने पर दवाई खरीदने में असमर्थता दिखाते हैं। कई बार यह भी देखने को मिलता है कि बुजुर्ग को मजबूरी में घर में चुप रहना पड़ता है। उन्हें मानसिक और शारीरिक कष्ट दिया जाता है।

युवा पीढ़ी यह भूल गयी है कि जब वे बुजुर्ग होंगे तो उनका ख्याल रखने वाले उनके अपने होंगे मगर आज जब वे अपने माता-पिता को उपेक्षित करेंगे तो उन्हें भी उपेक्षित होना पड़ सकता है। इतिहास खुद को दोहराता है।

बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने वालों को पाश्चात्य संस्कृति की बीमारी ने बीमार कर दिया है। भारत में बुजुर्ग पालतू जानवरों के साथ समय बिताकर अकेलेपन को दूर करते हैं। युवाओं को अपने परिवार से सामंजस्य बैठाना होगा।

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद हम कह सकते हैं कि बुजुर्गों को हमारी जरुरत है, और हमें उनकी। उनकी उपेक्षा करने से समाज का ढांचा कमजोर होगा। वे हमारे मार्गदर्शक हैं, दपर्ण हैं। उनके अनुभवों का लाभ हमें उठाना चाहिए। उनकी सेवा और सम्मान से हमारा जीवन बदल जायेगा। उनका आशीर्वाद हमें आगे बढ़ने की ऊर्जा और शक्ति प्रदान करेगा.

अन्नपूर्णा बाजपेयी को इस प्रयास के लिए बधाई दी जानी चाहिए। उन्होंने ऐसे विषय को चुना जिसपर कम ही लिखा जाता है। उन्होंने उसे एक किताब की शक्ल दी जो आज के समय में बहुत जरुरी थी। निश्चित ही इस पुस्तक से सीख लेकर युवा पीढ़ी अपने कर्तव्य को निभाएगी और अपनों से बड़ों का सम्मान करेगी।

अन्नपूर्णा की पुस्तक के अंत में ये पंक्तियां देखिये:
‘मन से दो तुम मान सदा ये वंदनीय है।
करें अहेतुक प्यार हमारे पूजनीय हैं।’

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'जीवन संध्या में एकाकी क्यों’
लेखिका : अन्नपूर्णा बाजपेयी
प्रकाशक : सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स
पृष्ठ : 88
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