विजय साई की ‘ड्रामा क्वींस’ थियेटर की दस महान अदाकाराओं के जीवन की खोज करती है। उन्होंने एक ऐसा परिदृश्य प्रस्तुत किया है जो उससे पूर्व मुमकिन नहीं था। उन महिलाओं का जीवन, उनका जुनून, उनका विद्रोह, समाज और परिवार से संघर्ष की यह दास्तान अनूठी है।
विजय का शोध प्रेरणादायक है और दस्तावेजीकरण आश्चर्यजनक। ऐसे दस्तावेज की लम्बे समय से जरुरत थी। इन महिलाओं ने अपने समय में अकल्पनीय समृद्ध कलात्मक जीवन व्यतीत किया।
अपनी विचारधाराओं में लिपटी रचनात्मक सोच से इन ‘खास’ महिलाओं ने समाज में जो मामूली बदलाव हो सकते थे, किये। उनमें से कई विद्रोही थीं, कई अन्य ने चुपचाप अपने क्षेत्र में मुकाम बनाया। तमिल रंगमंच आन्दोलन में अहम भूमिका निभाने वाली बालमणि जो कभी शोहरत के चरम पर थीं, बाद में तंगहाली और गुमनामी में चली गयीं। लेकिन उन्होंने जो रंगमंच के इतिहास में बदलाव किये वे शानदार हैं।
विजय साई ने बालमणि, मुन्नी बाई, तारा सुंदरी देवी, मुख़्तार बेगम, हीराबाई बरोड़कर, मलवल्ली सुन्दरम्मा, जहांआरा कज्जन, मोती बाई, रुशेन्द्रामिनी और थम्बलंगोबी देवी की कहानी को अपने कठिन प्रयासों से लोगों के बीच लाकर एक उदार व महत्वपूर्ण कार्य किया है। इनमें कई महिलाएं ऐसी हैं जिनके किस्से सुनाने वाले लोग भी दुनिया में नहीं रहे और उनके बारे में मुश्किल से कोई दस्तावेज है। विजय ने 1850-1950 के दशक के मध्य की जानकारी जिस तरह जुटाई है उससे लगता है कि वे भी जुनूनी हैं। यही वजह है कि उन्होंने विषय ऐसा चुना जिसपर आजकल लेखक सोचना भी नहीं चाहते।
गिरीश कर्नाड की भूमिका में पुस्तक का सार है। साथ ही उन्होंने लेखक की सोच और उनके प्रयास की सराहना की है।
‘ड्रामा क्वींस’ एक सशक्त शोध कार्य है जो भारतीय रंगमंच की पिछली शताब्दी की सबसे सम्मानित महिलाओं की कहानियों का वर्णन करता है. ये महिलाएं, जिन्हें अक्सर उस पेशे के लिए अपमानित किया जाता जो बदनाम माना जाता था, भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक स्टेज को जगमगाये रखा, और अपनी कला के प्रति सच्चाई से डटी रहीं. अगर कहानियां दिलचस्प हैं, तो आर्काइव की तस्वीरें भी समान हैं, जो हमें उस ज़माने के अदाकारों की वेश-भूषा और दशा की उज्जवल झलक दे रही हैं.'
-शांता गोखले.
‘यह भुला दिए गए उन सितारों के उत्कृष्ट योगदान को याद रखने और स्वीकार करने के लिए एक शानदार प्रयास है, जो अपनी कला के लिए जिए और मरे. उनके निस्वार्थ जुनून, उन सभी कठिनाइयों के बावजूद जिनका सामना उन्होंने अपने निजी जीवन में किया, उन्हें अमर बना दिया. आज न तो नाटक उद्योग और न ही संगीत और फिल्म उद्योग उन्हें याद करता है. यह उनके जीवन और उस युग का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक दस्तावेज है.‘
–बेगम फ़रीदा खानम.
यह पुस्तक मुन्नी बाई, मुख़्तार बेगम, जहांआरा कज्जन और मोती बाई सहित थिएटर की दस प्रमुख महिलाओं के माध्यम से उनके प्रदर्शन, राष्ट्रवाद और आधुनिकता की एक अलिखित कथा बताती है। दृश्य उनके संपन्न कलात्मक जीवन का ऐतिहासिक विवरण बुनते हैं। यह पुस्तक कला के इतिहास निर्माण में इन महिलाओं के विशाल योगदान के लिए एक श्रद्धांजलि है।
लेखक विजय साई ने देशभर में कई साल तक शोध किया और कला प्रेमियों के लिए इस किताब को रचा। वे उत्तर से लेकर दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक इसलिए यात्राओं पर गए ताकि भारतीय रंगमंच के उन कलाकारों की खोज कर सकें जिनकी विरासत के बूते आज का सिनेमा जगमगा रहा है।
विजय साई अवार्ड विजेता लेखक, संपादक, अनुवादक और सांस्कृतिक आलोचक हैं. इनके शोधपरक लेख कला, संस्कृति आदि पर प्रकाशित होते रहते हैं. यह इनकी पहली पुस्तक है.
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