मुसाफिर कैफे : दिव्य प्रकाश ने शब्दों को खुले मैदान में छोड़ दिया

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दिव्य ने जो अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर उन्हें शैफ की तरह सजाया, वह युवाओं को भाया.

मुसाफिर कैफे को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है जैसे एक कहानी बहुत तेजी से आपकी आंखों के सामने से गुजरी हो और उसकी छाप भी उतनी ही तेजी से आपमें समाती चली गयी हो।

दिव्य प्रकाश को नयी हिंदी वाला कहा जाने लगा है।

लगता है यह छाप उनपर रहेगी और आने वाले वक्त में शायद हम किताबों में भी उनका नाम नई हिंदी वाले लेखक के रुप में पढ़ें।

मुझे लगता है कि दिव्य ने जो अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर या कहें हिंदी में तड़का लगाकर उन्हें शैफ की तरह सजाया है, वह युवाओं को खूब पसंद आया है।

यही कारण है कि उन्हें पाठकों ने हाथों हाथ लपका है।

मुसाफिर कैफे उनकी तीसरी किताब है।


एक जगह दिव्य प्रकाश लिखते हैं: 

‘कुछ दिन जिंदगी की फिल्म में बस होते हैं। वो दिन क्यूं आकर क्यूं चले जाते हैं पता नहीं चलता। वो न हमारी कहानी आगे बढ़ाते हैं न ही कुछ बताते हैं। उन दिनों को अगर जिंदगी से हटाकर देखो तब कुछ अधूरा रह जाता है और अगर जोड़ दो तो भी कहानी पूरी नहीं बनती। कभी-कभार उदास शामें, उदास बातें भी करते रहना चाहिए। हमें सुकून तभी मिलता है जब हम उदासियों से लौट-लौटकर बार-बार मिलते हैं। चंदर पुराने किस्से से आगे बढ़ चुका था। सुधा बहुत आगे बढ़ चुकी थी लेकिन दोनों का अधूरापन वैसा-का वैसा था। आगे बढ़ जाना, कुछ टाइम बाद सब नॉर्मल हो जाना, बड़ी-सी बात झेल जाना भी अपने आप में कितना खतरनाक है, ये इकलौती बात हमें जानवर बनाती है।’

दिव्य प्रकाश ने फिर से दुनियादारी की बहुत अच्छी बातें की हैं जिन्हें बार-बार पढ़ा जा सकता है और लेखक की तारीफ की जा सकती है : 
‘हमारी असली यात्रा उस दिन शुरु होती है जिस दिन हमारा दुनिया की हर चीज से, हर रिश्ते से, भगवान पर से विश्वास उठ जाता है और यात्रा उस दिन खत्म होती है जिस दिन ये सारे विश्वास लौटकर हमें गले लगा लेते हैं। ...भटकना मंजिल की पहली आहट है। कोई सही से भटक ही ले तो भी बहुत कुछ पा जाता है। सच्ची आजादी का कुल मतलब अपनी मर्जी से भटकना है।’

मेरा मानना है जब कहानी एक खांचें में ठीक से पिरोयी जाये और पाठकों को पकड़ने और किताब में लगाये रखने का आपके पास जोखिम हो तो आप किसी भी कहानी को अपने शब्दों की जादूगरी से मैदान में खुला छोड़ सकते हैं।

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